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स॒मु॒द्रं ग॑च्छ॒ स्वाहा॒न्तरि॑क्षं गच्छ॒ स्वाहा॑ दे॒वꣳ स॑वि॒तारं॑ गच्छ॒ स्वाहा॑ मि॒त्रावरु॑णौ गच्छ॒ स्वाहा॑होरा॒त्रे ग॑च्छ॒ स्वाहा॒ छन्दा॑सि गच्छ॒ स्वाहा॒ द्या॑वापृथि॒वी ग॑च्छ॒ स्वाहा॒ य॒ज्ञं ग॑च्छ॒ स्वाहा॒ सोमं॑ गच्छ॒ स्वाहा॑ दि॒व्यं नभो॑ गच्छ॒ स्वाहा॒ग्निं वै॑श्वान॒रं ग॑च्छ॒ स्वाहा॒ मनो॑ मे॒ हार्दि॑ यच्छ॒ दिवं॑ ते धू॒मो ग॑च्छतु॒ स्व᳕र्ज्योतिः॑ पृथि॒वीं भस्म॒नापृ॑ण॒ स्वाहा॑ ॥२१॥

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पद पाठ

स॒मु॒द्रम्। ग॒च्छ॒। स्वाहा॑। अ॒न्तरिक्ष॑म्। ग॒च्छ॒। स्वाहा॑। दे॒वम्। स॒वि॒तार॑म्। ग॒च्छ॒। स्वाहा॑। मि॒त्रावरु॑णौ। ग॒च्छ॒। स्वाहा॑। अ॒हो॒रा॒त्रेऽइत्य॑होरा॒त्रे। ग॒च्छ॒। स्वाहा॑। छन्दा॑ꣳसि। ग॒च्छ॒। स्वाहा॑। द्यावा॑पृथि॒वीऽइति॒ द्यावापृथि॒वी। ग॒च्छ॒। स्वाहा॑। य॒ज्ञम्। ग॒च्छ॒। स्वाहा॑। सोम॑म्। ग॒च्छ॒। स्वाहा॑। दि॒व्यम्। नभः॑। ग॒च्छ॒। स्वाहा॑। अ॒ग्निम्। वै॒श्वा॒न॒रम्। ग॒च्छ॒। स्वाहा॑। मनः॑। मे॒। हार्दि॑। य॒च्छ॒। दिव॑म्। ते॒। धू॒मः। ग॒च्छ॒तु॒। स्वः॑। ज्योतिः॑। पृ॒थि॒वीम्। भस्म॑ना। आ। पृ॒ण॒। स्वाहा॑ ॥२१॥

यजुर्वेद » अध्याय:6» मन्त्र:21


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब राज्यकर्म करने योग्य शिष्य को गुरु क्या-क्या उपदेश करे, यह अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे धर्मादि राज्यकर्म करने योग्य शिष्य ! तू (स्वाहा) बड़े-बड़े अश्वतरी नाव अर्थात् धूआँकष आदि बनाने की विद्या से नौकादि यान पर बैठ (समुद्रम्) समुद्र को (गच्छ) जा। (स्वाहा) खगोलप्रकाश करनेवाली विद्या से सिद्ध किये हुए विमानादि यानों से (अन्तरिक्षम्) आकाश को (गच्छ) जा। (स्वाहा) वेदवाणी से (देवम्) प्रकाशमान (सवितारम्) सब को उत्पन्न करनेवाले परमेश्वर को (गच्छ) जान। (स्वाहा) वेद और सज्जनों के सङ्ग से शुद्ध संस्कार को प्राप्त हुई वाणी से (मित्रावरुणौ) प्राण और उदान को (गच्छ) जान। (स्वाहा) ज्योतिषविद्या से (अहोरात्रे) दिन और रात्रि वा उन के गुणों को (गच्छ) जान। (स्वाहा) वेदाङ्ग विज्ञानसहित वाणी से (छन्दांसि) ऋग्यजुः साम और अथर्व इन चारों वेदो को (गच्छ) अच्छे प्रकार से जान। (स्वाहा) भूमियान, आकाश मार्ग विमान और भूगोल वा भूगर्भ आदि यान बनाने की विद्या से (द्यावापृथिवी) भूमि और सूर्यप्रकाशस्थ अभीष्ट देश-देशान्तरों को (गच्छ) जान और प्राप्त हो। (स्वाहा) संस्कृत वाणी से (यज्ञम्) अग्निहोत्र, कारीगरी और राजनीति आदि यज्ञ को (गच्छ) प्राप्त हो। (स्वाहा) वैद्यक विद्या से (सोमम्) ओषधिसमूह अर्थात् सोमलतादि को (गच्छ) जान। (स्वाहा) जल के गुण और अवगुणों को बोध करानेवाली विद्या से (दिव्यम्) व्यवहार में लाने योग्य पवित्र (नभः) जल को (गच्छ) जान और (स्वाहा) बिजुली आग्नेयास्त्रादि तारबरकी तथा प्रसिद्ध सब कलायन्त्रों को प्रकाशित करनेवाली विद्या से (अग्निम्) विद्युत् रूप अग्नि को (गच्छ) अच्छी प्रकार जान और (मे) मेरे (मनः) मन को (हार्दि) प्रीतियुक्त (यच्छ) सत्यधर्म में स्थित कर अर्थात् मेरे उपदेश के अनुकूल वर्ताव वर्त्त और (ते) तेरे (धूमः) कलाओं और यज्ञ के अग्नि का धूआँ (दिवम्) सूर्य्यप्रकाश को तथा (ज्योतिः) उस की लपट (स्वः) अन्तरिक्ष को (गच्छतु) प्राप्त हो और तू यन्त्रकला अग्नि में (स्वाहा) काष्ठ आदि पदार्थों को भस्म कर उस (भस्मना) भस्म से (पृथिवीम्) पृथिवी को (आपृण) ढाँप दे ॥२१॥
भावार्थभाषाः - धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष, राज्य और व्यापार चाहनेवाले पुरुष भूमियान, अन्तरिक्षयान और आकाशमार्ग में जाने-आने के विमान आदि रथ वा नाना प्रकार के कलायन्त्रों को बनाकर तथा सब सामग्री को जोड़ कर धन और राज्य का उपार्जन करें ॥२१॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ राष्ट्रकर्मानुष्ठातुमर्हाय शिष्याय गुरुः किं किमुपदिशेदित्याह ॥

अन्वय:

(समुद्रम्) समुद्द्रवन्ति जलानि यस्मिन् तमुदधिम् (गच्छ) (स्वाहा) बृहन्नौकारचनादिविद्यासिद्धेन यानेन (अन्तरिक्षम्) आकाशम् (गच्छ) (स्वाहा) खगोलप्रकाशिकया विद्यया सम्पादितेन विमानेन (देवम्) द्योतमानं (सवितारम्) सर्वस्य प्रसवितारं परमेश्वरम् (गच्छ) जानीहि (स्वाहा) वेदवाचा सत्सङ्गसंस्कृतया वा (मित्रावरुणौ) प्राणोदानौ (गच्छ) प्राणायामाभ्यासेन विद्धि (स्वाहा) योगयुक्त्या वाचा (अहोरात्रे) अहश्च रात्रिश्चाहोरात्रे। हेमन्तशिशिरावहोरात्रे च छन्दसि। (अष्टा०२.४.२८) अनेन नपुंसकत्वम्। (गच्छ) कालविद्यया जानीहि याहि वा (स्वाहा) ज्योतिर्बोधयुक्त्या वाचा (छन्दांसि) ऋग्यजुःसामाथर्वाणश्चतुरो वेदान् (गच्छ) पठनपाठनपुरस्सरेण श्रवणमनननिदिध्यासनसाक्षात्कारेण विजानीहि (स्वाहा) वेदाङ्गादिविज्ञानसहितया वाचा (द्यावापृथिवी) द्यौश्च पृथिवी च तौ भूमिसूर्यौ तद्गतावभीष्टदेशदेशान्तराविति यावत् (गच्छ) जानीहि (स्वाहा) भूमियानाकाशयानरचनभूगोलभूगर्भखगोलविद्यया (यज्ञम्) अग्निहोत्रशिल्पराजव्यवहारादिकम् (गच्छ) (सोमम्) ओषधिसमूहम् (गच्छ) जानीहि (स्वाहा) वैद्यकशास्त्रबोधार्हया वाचा (दिव्यम्) व्यवहर्त्तव्यं शुद्धम् (नभः) जलम् (गच्छ) प्राप्नुहि (स्वाहा) तद्गुणविज्ञापयित्र्या वाचा (अग्निम्) विद्युतम् (वैश्वानरम्) सर्वत्र प्रकाशमानम् (गच्छ) जानीहि (स्वाहा) तद्बोधयुक्त्या वाण्या (मनः) चित्तम् (मे) मम (हार्दि) हृदयस्यातिशयेन प्रियम् (यच्छ) निधेहि (दिवम्) सूर्यम् (ते) तव (धूमः) यन्त्रज्वलनवाष्पः (स्वः) सुखम्, अन्तरिक्षम्, अवकाशम् (ज्योतिः) ज्वालाम् (पृथिवीम्) भस्मना (आ) समन्तात् (पृण) योजय (स्वाहा) यज्ञानुष्ठानयन्त्ररचनविद्यया ॥ अयं मन्त्रः (शत०३.८.४.११-१८ तथा ८.५.१-५) व्याख्यातः ॥२१॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे राजकर्मानुष्ठानार्ह विद्वंस्त्वं स्वाहा समुद्रं गच्छ। स्वाहान्तरिक्षं गच्छ। स्वाहा देवं सवितारं गच्छ। स्वाहा मित्रावरुणौ गच्छ। स्वाहाहोरात्रे गच्छ। स्वाहा यज्ञं गच्छ। स्वाहा सोमं गच्छ। स्वाहा दिव्यं नभो गच्छ। स्वाहाग्निं वैश्वानरं च गच्छ। मे मम मनोहार्दि यच्छ। ते तव धूमो दिव्यं ज्योतिः स्वर्गच्छतु। त्वं स्वाहा भस्मना पृथिवीमापृण ॥२१॥
भावार्थभाषाः - धर्मादिराज्यव्यापारकरणवृत्तिमभीप्सुभिर्जनैर्भूमियानान्तरिक्षयानाकाशयानैर्विविधयन्त्रकालरचनैश्च सर्वाः सामग्रीः संपाद्य द्रव्यसंचयः कार्यः ॥२१॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष यांची प्राप्ती व राज्य आणि व्यापार करू इच्छिणाऱ्या माणसांनी भूमियान, अंतरिक्ष यान, विमान इत्यादी रथ किंवा विविध प्रकारची यंत्रे बनवून धन आणि राज्य प्राप्त करावे.